RATANGARH MATA TEMPLE
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RATANGARH MATA MANDIR,DATIA (M.P.)

रतनगढ़ माता माण्डुला देवी और कुंवर महाराज का इतिहास

HISTORTY OF RATANGARH MATA MADULA DEVI AND KUWAR MAHARAJ

  •  मंदिर की स्थापना:(ESTABLISHMENT OF TEMPLE) रतनगढ़ माता मंदिर रामपुरा गाँव से 11 किमी दूर तथा दतिया से 65 किमी दूर स्थित है ! यह पवित्र स्थान घने जंगल मे सिंध नदी के तट पर स्थित है ! यहाँ हर वर्ष दिवाली दूज पर हजारों कि संख्या मे लोग दर्शन करने आते है !   
  • नदी से छ: किलोमीटर दूर स्थित रतनगढ़ माता मंदिर की स्थापना लगभग 600 वर्ष पूर्व सत्रहवीं सदी मे हुई थी। छत्रपति शिवाजी जब बादशाह औरंजगेब की  कैद में थे, तब उनके गुरू समर्थ रामदास, रतनगढ माता की मडिया में लगभग 6 माह तक रहे थे। यहीं रहकर उन्होंने शिवाजी को छुड़ाने की योजना बनाई थी।   औरंजगेब के कैद से छूटकर शिवाजी सबसे पहले रतनगढ आये थे। उसी समय गुरू समर्थ रामदास और छत्रपति शिवाजी द्वारा, माता की मूर्ति की स्थापना की गई थी। मां रतनगढ के प्रति अंचल सहित सीमावर्ती जिलों के लाखों लोगो की आस्था जुड़ी है। प्रति सोमवार को मां के दरबार में विशाल मेला लगता है। वही नवरात्रि में लाखों श्रृद्धालु माता के दर्शन करते है।
  • रतनगढ़ माता का इतिहास (HISTORY OF RATANGARH MATA)घने जंगल में सिंध नदी के किनारें विध्यांचल पर्वत श्रृखला के पर्वत पर स्थित देवी मंदिर गवाह हैं कि, यहां पर राजा रतनसेन ने देश धर्म की रक्षा के लिए अंतिम सांस तक मुगलों से लोहा लिया था। राजा शंकर शाह के पुत्र रतनसेंन ने तेहरवीं शताब्दी 900 वर्ष पूर्व  में उसी अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316) से लोहा लिया था। जिसकी वजह से पद्मावती को जौहर करना पड़ा था। रानी पद्मिनी को हासिल, कर पाने में असफल अलाउद्दीन की नजर रतनगढ़ की रूपसी राजकुमारी माण्डुला के सौन्दर्य पर पड़ गई थी। उसे हासिल करने के लिए अलाउद्दीन ने रतनगढ़ पर आक्रमण किया था।  रतनगढ़ के राजा रतन सिंह के सात राजकुमार और एक पुत्री थी। पुत्री अत्यन्त सुन्दरी थी उसकी सुन्दरता की ख्याति से आकर्षित होकर उलाउद्दीन खिलजी ने उसे पाने के लिए रतनगढ़ की ओर सेना सहित प्रस्थान किया। घमासान युद्ध हुआ जिसमें रतन सिंह और उनके छः पुत्र मारे गये। सातवें पुत्र को बहिन ने तिलक करके तलवार देकर रणभूमि में युद्ध के लिए बिदा किया। राजकुमारी ने भाई की पराजय और मृत्यु का समाचार पाते ही माता वसुन्धरा से अपनी गोद में स्थान देने की प्रार्थना की। जिस प्रकार सीता जी के लिए माँ धरती ने शरण दी थीं, उसी प्रकार इस राजकुमारी के लिए भी उस पहाड़ के पत्थरों में एक विवर दिखाई दिया जिसमें वह राजकुमारी समा गई/ उसी राजकुमारी की यहां माता के रुप में पूजा होती है। यहां यह विवर आज भी देखा जा सकता है। युद्ध का स्मारक हजीरा पास में ही बना हुआ है। हजीरा उस स्थान को कहते हैं जहां हजार से अधिक मुसलमान एक साथ दफनाये गये हों। विन्सेण्ट स्मिथ ने इस देवगढ़ का उल्लेख किया है  राजा रतनसेन ने अपनी बेटी की लाज एंव राजपूत गौरव की रक्षा के लिए संघर्ष किया था। राजा ने बेटी की रक्षा का भार अपने छोटें भाई कुंवर जूं को सौंपकर, अलाउद्दीन खिलजी का सामना किया। जंग में खिलजी के हजारों योद्धा मारे गये जिससे उसे भागना पड़ा था।
  • प्रसिद्ध रतनगढ़ माता के मंदिर का इतिहास काफी पुराना है। यह मंदिर मध्य प्रदेश के दतिया जिले से 63 किलोमीटर दूर मर्सैनी गांव के पास स्थित है। बीहड़ इलाका होने की वजह से यह मंदिर घने जंगल में पड़ता है। इसके बगल से ही सिंध नदी बहती है! यहां अपनी मन्नतों की पूर्ति के लिए आने वाले लोग दो मंदिर के दर्शन करते हैं। एक मंदिर है रतनगढ़ माता का और दूसरा है कुंवर महाराज का। मान्यताओं के अनुसार कुंवर महाराज रतनगढ़माता के भाई हैं। कहा जाता है कि कुंवर महाराज जब जंगल में शिकार करने जाते थे तब सारे जहरीले जानवर अपना विष बाहर निकाल देते थे। इसीलिए जब किसी इंसान को कोई विषैला जानवर काट लेता है तो उसके घाव पर कुंवर महाराज के नाम का बंध लगाते हैं। बंध लगाने के बाद वो इंसान भाई दूज दीपावली के दूसरे दिन कुंवर महाराज के मंदिर में दर्शन करता है यह मंदिर छत्रपति शिवाजी महाराज की मुगलों के ऊपर विजय कि निशानी है जो की सत्रहवीं सदी मे युध्द हुअा था छत्रपति शिवाजी और मुगलों के वीच और तब माता रतनगढ़ वाली और कुंवर महाराज ने मदद की थी क्योंकि ।माता रतन गढ़ वाली और कुंवर महाराज ने शिवाजी महाराज के गुरु रामदास जी को पथरी गढ़ यानी देव गढ़ के किले मे दर्शन दिए थे और शिवाजी महाराज को मुगलों से फिर से युध्द के लिए प्रेरित किया था और फिर जब पूरे भारत पर राज करने वाले मुगल शासन की सेना जब वीर मराठा शिवाजी की सेना से टकराई तो उन्हें मुंह की खानी पड़ी। मुगल सेना को परास्त करने के बाद शिवाजी ने इस मंदिर को अपनी जीत की यादगार के रूप में बनवाया था।यह मंदिर एक विजयघोष की भी याद दिलाता है। विंध्याचल के पर्वत में होने की वजह से इस मंदिर की खूबसूरती और भी बढ़ जाती है। विंध्याचल पर्वत को मां दुर्गा का निवास स्थान भी माना जाता है। इस मंदिर में विराजमान माता रतनगढ़ का भक्तों में काफी महत्व हैं। रतनगढ़ माता मंदिर में बनी थी शिवाजी को आजाद कराने की रणनीतिहिन्दू स्वाभिमान की रक्षा करने वाले व् मराठा साम्राज्य की पताका फहराने वाले महान राजा छत्रपति शिवाजी को एक बार औरंगजेब ने पुत्र समेत धोखे से बुलाकर बंदी बना लिया था। शिवाजी महाराज को आजाद कराने उनके गुरू समर्थ स्वामी रामदास और दादा कोण देव महाराष्ट्र से ग्वालियर के पास दतिया के रतनगढ़ माता मंदिर में आकर रहे
  • रतनगढ़ माता मंदिर में की थी गुरु रामदास ने साधना-रतनगढ़ माता मंदिर में ही समर्थ रामदास और दादा कोण देव ने आध्यात्मिक साधना के साथ स्वामी रामदास ने छत्रपति शिवाजी महाराज और उनके पुत्र को आजाद कराने के लिए कूटनीतिक तैयारियां भी इसी मंदिर में रहकर की थीं।समर्थ गुरु स्वामी रामदास ने इस मंदिर में 6 महीने तक कठोर साधना की और शिवाजी महाराज को आगरा किले से छुड़ाने की रणनीति बनाई। औरंगजेब को भेंट के तौर पर फलों की टोकरियां भिजवाई जाती थीं. रामदास ने इस चीज का फायदा उठाकर पहले तो अपने एक शिष्य को औरंगजेब का विश्वास जीतने के लिए कहा और जब ऐसा करने में वो सफल हुआ तो भेंट स्वरूप औरंगजेब के यहां फलों से भरी टोकरियां भिजवाई गईं जो ऊपर से ढकी हुई थी। जिसके तहत स्वामी रामदास के शिष्यों ने जेल में शिवाजी महाराज को भेंट करने फलों की टोकरियां भेजनी शुरू कर दीं।कई दिनों की गहन जांच के बाद जब जेल के पहरेदारों को भरोसा हो गया तो एक बार बेहद बड़ी टोकरियों में फलों में छिपाकर कुछ हथियार भी शिवाजी और उनके पुत्र के लिए भेजे गए थे। अपने गुप्तचर से रामदास ने शिवाजी को योजना के बारे में पहले ही सूचना भिजवा दी थीशिवाजी महाराज ने भी पहले दिन से ही फलों की टोकरियों से कुछ फल लेकर बाकी फलों से भरी टोकरियां बाहर गरीबों में दान के लिए भेजना शुरू कर दी थीं।उस दिन जब शिवाजी महाराज को उन टोकरियों में हथियार मिले तो वह संकेत समझ गए और उन बड़ी टोकरियों में अपने साथ अपने पुत्र को बिठा कर गरीबों में फल बांटने के बहाने स्वामी रामदास के शिष्यों को भिजवा दीं। स्वामी रामदास के शिष्य उन टोकरियों के वजन से सारा मामला समझ गए और शिवाजी महाराज को उनके पुत्र के साथ आगरा से पार करग्वालियर भेज दिया गया। उसके बाद शिवाजी महाराज अपने पुत्र के साथ समर्थ गुरु स्वामी रामदास के पास दतिया पहुंच गए।
  • रतनगढ़ माता मंदिर का करवाया शिवाजी ने जीर्णोद्धार-छत्रपति शिवाजी महाराज ने रतनगढ़ माता मंदिर पहुचकर अनुष्ठान कर माता को घंटा चढ़ाया एवं उसके बाद मंदिर का जीर्णोद्धार भी करवाया।शिवाजी महाराज के घंटा चढाने के बाद से मंदिर में घंटा चढ़ाने की परंपरा की शुरुआत हो गई, और श्रद्धालु़ मनोकामना पूर्ति के लिए यहां पीतल का घंटा चढ़ाने लगे। नवरात्रि के दिनों में श्रदालुओं द्वारा मंदिर में कई टन में घण्टे चढ़ जाते हैं। विंध्याचंल पर्वत श्रृखंलाओं के पर्वत पर, सिंध नदी के किनारे जंगल में विराजमान मां रतनगढ़ का दरबार, श्रृद्धालुओं की आस्था से कई वर्षों से रोशन हैं। इस मंदिर को सिद्ध माना जाता है इसलिए यहां मन्नतों के पूरी होने की भी चर्चाएं काफी मशहूर हैं। यहां पर भक्त अपनी-अपनी तरह से मां को श्रद्धा प्रकट करते हैं। कोई नंगे पांव तो कोई जमीन पर लेट- लेटकर यहां आता है। और कोई जवारे वो कर माता रानी की नौ दिन तक सेवा करते हैं और नवे दिन जवारे चढ़ाने पैदल कई कोषों दूर से आतें हैं और हर भक्त अपनी मुरादें पूर्ण कर अपने घर खुशियां लेकर वापस लौटता है.. ऐसा माँ के हर भक्त का कहना है कि मईया अपने भक्तों को कभी निराश नही करती, मईया भक्तों की हर समस्या को दूर कर उनकी मनोकामना अवश्य पूरी करती
  • यहां पर चढ़ा हैं देश का सबसे बढ़ा घंटा:मन्नत पूरी होने पर श्रृद्धालुओं द्वारा प्रतिवर्ष सैंकड़ो घंटे मां के दरबार में चढायें जाते है। मंदिर पर एकत्रित हुए घंटों की पूर्व में नीलामी की जाती थी। वर्ष 2015 में जिला प्रशासन की मंशा पर यहां पर एकत्रित घंटों को गलवाकर विशाल घंटा बनवाकर चढ़ाया गया है। लगभग 10 क्विंटल वजन के इस घंटे की नीचे की गोलाई का व्यास 13.5 इंच है। घंटा टांगने के हुक के व्यास की गोलाई 1.8 इंच है। घंटे की एक ओर त्रिशूल दूसरी ओर बैल के सींग दर्शायें गये हैं। घंटे पर 18 ॐ एंव 18 स्वास्तिक चिन्हित किये गये है। पूरे घंटे के ऊपर से नीचे तक 9 रिंग बनाये गये है।रतनगढ़ माता मंदिर पर नवरात्र 16 अक्टूबर2015 में देश का सबसे वजनी बजने वाला पीतल के घंटे का उदघाटन मान्यनिय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और साथ मे आये नरोत्तम मिश्रा जी द्वारा किया गया । जिसको नौ धातुओं से मिलाकर बनाया गया हैऔर इस घंटे की खासियत यह है कि इसको कोई भी बजा सकता है चाहे चार साल का बालक या बालिका या फिर अस्सी साल का कोई बुजुर्ग इसका लगभग वजन दो टन है और इसको लटकाने वाले पिलर लगभग तीन टन के हैदरअसल मंदिर पर श्रद्घालुओं द्वारा चढ़ाने जाने वाले घंटों की मंदिर प्रबंधन कमेटी नीलामी कराती थी। कलेक्टर प्रकाश जांगरे ने घंटों की नीलामी न कराकर छोटे घंटों को मिलाकर बड़ा घंटा बनवाने का निर्णय लिया तथा यह कार्य ग्वालियर के मूर्तिकार प्रभात राय को सौंपा।पहले घंटा1100 किलो का बनवाया जा रहा था पर अब इसका वजन 1935 किलो है नवरात्र पर्व पर रतनगढ़ माता मंदिर पर श्रद्घालुओं के पहुंचने का सिलसिला शुरू हो जाता है ।
  •  दतिया जिला मुख्यालय से 65 किमी दूर रतनगढ़ माता का मंदिर (Ratangarh Mata Temple) है। आदिकाल से मन्नत पूरी होने पर मां के दरबार में घंटा चढ़ाये जाने की परंपरा है। प्रतिवर्ष हजारों घंटे मां के दरबार में चढ़ाये जाते है। इसी श्रृद्धाभाव के तहत डकैतों ने भी यहां पर बडें-बडें घंटे चढ़ाये हैं। नवरात्रि एंव दीपावली की दूज पर यहां विशाल मेला लगता है। नवरात्रि के दिनों में यहां पर लाखों श्रृद्धालु माता के दर्शन के लिए आते है।
  • महल में पहुंचा गलत संदेशलेकिन महल में गलत संदेश पहुंच गया था, जिससे शोक में डूबी रानियों ने जौहर कर लिया। कुंवर जू राजकुमारी माण्डुला को लेकर अलग छिपे हुए थे। जौहर की लपटें उठती देख माण्डुला ने भी खुद को घास के ढेर में घेर कर जौहर कर लिया था। राजकुमारी को नही बचा सकने की ग्लानि में कुंवर जू ने खुद को उसी आग में जला लिया। रतनगढ़ का ये जौहर चित्तौड़ में हुए रानी पद्मिनी के जौहर से कुछ कम नही था। बाद में राजा रतनसेन ने अलाउद्दीन खिलजी के सैनिकों की लाशें सिंध नदी के तट पर बसईजीत गांव के नजदीक दफना दी। जो आज हजीरा कहलाता हैं।राजकुमारी एंव कुंवर जू की याद में देवी मंदिर बनवाया गया था। बाद में मंदिर के पास ही माण्डुला और उनके चाचा कुंवर जू के छोटे मंदिर भी बनवा दिये गये। तभी से रतनगढ माता एंव कुवंर बाबा की पूजा की जाती है। यहां पर मांगी गई हर मुराद पूरी होती है। माता एंव कुंवर बाबा का स्थान चमत्कारिक एंव पवित्र हैं

रतनगढ़ माता मंदिर दतिया, मध्य प्रदेश

रतनगढ़ माता मंदिर: सिंध" नदी के तट पर बना सिद्ध पीठ है

रतनगढ़ माता मंदिर रामपुरा गाँव से 11 किमी दूर तथा दतिया से 65 किमी दूर स्थित है ! यह पवित्र स्थान घने जंगल मे सिंध नदी के तट पर स्थित है ! यहाँ हर वर्ष दिवाली दूज पर हजारों कि संख्या मे लोग दर्शन करने आते है !   

 

रतनगढ़ माता  की कहानी Story of Ratangarh Mata/ RATANGARH WALI MATA KAHANI

दतिया जिला के सेंवढ़ा से आठ मील दक्षिण पश्चिम की ओर रतनगढ़ नामक एक स्थान है। यहां आस पास कोई गांव नहीं है। यहां ऊंची पहाड़ी पर एक दुर्ग के अवशेष मिलते हैं। दुर्ग सम्पूर्ण पत्थर का बना हुआ है, जिसकी दीवारों की मोटाई बारह फीट के लगभग है। यह पहाड़ी तीन ओर से सिन्धु नदी की धारा से सुरक्षित ब घिरी हुई  है। यह स्थान अतयन्त ही रमणीक । रतनगढ़ धाम घने जंगल के बीच में है। यहां उस पहाड़ी पर एक देवी का मंदिर बना हुआ है जिसे रतनगढ़ की माता के नाम से जाना जाता है। 
गत दो दशकों तक दस्युओं के आंतक के कारण यहां लोगों का आना जाना कम ही हो गया था। कार्तिक शुक्ल द्वितीया को यहां एक मेला भरता है जिसमें अनेक व्यक्ति देवी की मनौती मनाने के लिए आते हैं, जिसकी कामना पूर्ण हो जाती है, वे देवी को प्रसाद चढ़ाने, ब्राह्मण को भोजन कराने और देवी की आराधना में बोये हुए ज्वारे चढ़ाने के लिए आते हैं। इस स्थान की ख्याति दूर-दूर तक एक सिद्ध पीठ के रुप में है। यहां से सात आठ मील की दूरी पर ही देवगढ़ का किला है जो बहुत ही अद्भुत स्थान है।
किले के अनेक कमरों में ताले पड़े हुए हैं जिन्हें कदाचित शताब्दियों से नहीं खोला गया। कहते हैं कि इस स्थान पर रात को कोई ठहर नहीं सकता। जो ग्वालियर से दस मील की दूरी पर है। युद्ध में मारे जाने वाले राजकुमार का चबूतरा भी यहां बना हुआ है जिसे कुंवर साहब का चबूतरा कहा जाता है।
किसी भी पुरुष अथवा पशु को सांप काटने पर प्रायः कुँवर साहब के नाम का बंध लगा दिया जाता है जिससे विष का प्रभाव सारे शरीर में व्याप्त नहीं होता। यह बंध कोई धागा आदि नहीं होता जिसे बांधा जाता हो। केवल कूँवर साहब की आन देकर उस स्थान के चारों ओर उंगली फेर देते हैं, इसी को बंध कहा जाता है। दीपावली के पश्चात पड़ने वाली द्वितीया के मेले में इस चबूतरे के पास सपं दंश वाले ऐसे लोगों और गाय, बैल, भैंस आदि के बंध काटे जाते हैं। विचित्र बात तो यह कि पुजारी के बंध काटते हो उस व्यक्ति को मूर्छा आती है, उसे चबूतरे का परिक्रमा कराकर घर जाने दिया जाता है। लेखक को एक बार अपने कुछ साथियों सहित इस चमत्कार को देखने का अवसर प्राप्त हुआ। एक के बाद एक इस प्रकार के अनेक स्री पुरुष जाते गये और बंध काटने के समय उन्हें उनके साथी सहारा देकर चबूतरे की परिक्रमा कराते रहे। पर जब एक बैल का बंध काटने के पश्चात वह चक्कर खाकर गिर पड़ा तो इस चमत्कार को देखकर हम लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। हम लोग भी कुँवर साहब के इस प्रभाव के सामने सिर झुकाकर चले आये।
कुँबर साहब
बुन्देलखण्ड के प्रायः प्रत्येक गांव में, गांवके बाहर अथवा भीतर एक चबूतरे पर दो ईंटें रखी रहती हैं जिन्हें कुंवर साहब का चबूतरा कहा जाता है। इन्हें जनमानस में लोक देवता के रुप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। सामान्य व्यक्तियों को इनके सम्बन्ध में केवल इतना ही बात है कि ये कोई राजपुत्र थे। अनेक स्थानों पर बहुत प्राचीन सर्प के रुप में भी ये दिखाई देते हैं। उस समय एक दूध का कटोरा रख देने से ये अदृश्य हो जाते हैं। ऐसा लोगों का विश्वास है।
इस पवित्र स्थान पर आसानी से ग्वालियर और दतिया से पहुँचा जा सकता है। इस पवित्र स्थान पर आसानी से वाहन (बाइक / कार आदि) पहुंच सकता है


 रतनगढ़ वाली माता का इतिहास: आत्म बलिदान करने वाली राजकुमारी का मंदिर, यहां डाकू भी बड़ी श्रद्धा से चढ़ाते थे घंटा

History of Ratangarh Wali Mata: Temple of a princess who sacrificed herself, here robbers also used to offer bell with great reverence

दतिया के विंध्याचल पर्वत पर रतनगढ़ वाली माता विराजी हैं। यह मंदिर मध्य प्रदेश के दतिया जिला मुख्यालय से 65 किलोमीटर दूर मर्सेनी (सेंवढा) गांव के पास स्थित है। बीहड़ इलाका होने की वजह से यह मंदिर घने जंगल में पड़ता है। यह स्थान पूर्णतः प्राकृतिक और चमत्कारिक है। साथ ही एक दर्शनीय स्थल भी है। जहां वर्षभर हजारों लोग दर्शन करने के लिए आते हैं। प्राकृति का सुंदर रूप मंदिर के चारों ओर देखने को मिलता है। सभी दिशाओं में जंगल ही जंगल है। उसमें टेढ़ी-मेड़ी बहती हुई सिंध नदी भी मंदिर की पहाड़ी को लगभग दो ओर से घेरे हए है। जो अपने आप में अद्भुत प्रतीत होती है। रतनगढ़ की माता धार्मिक और प्राकृतिक वैभव के साथ-साथ ही डकैतों की आराध्य स्थली के रूप में भी विख्यात है।

नवरात्रि आते ही देवी मंदिरों में भक्तों का तांता लग जाता है। मां का प्यार और आस्था दूर-दूर से भक्तों को अपने पास दर्शन को बुला लेती हैं। ऐसा ही प्रसिद्ध मंदिर है मध्यप्रदेश के दतिया जिले में, जहां स्थित विंध्याचल पर्वत पर रतनगढ़ वाली माता विराजी हैं। प्रसिद्ध रतनगढ़ माता के मंदिर का इतिहास काफी पुराना है। इसके पास से ही सिंध नदी बहती है। यहां अपनी मन्नतों की पूर्ति के लिए आने वाले श्रद्धालु दो मंदिरों के दर्शन करते हैं। इनमें एक मंदिर है रतनगढ़ माता का और दूसरा कुंवर बाबा का मंदिर है। दीवाली की दूज पर लगने वाले मेले में यहां 20 से 25 लाख लोग दर्शन करने आते हैं। साथ-साथ नवरात्र में भी हर साल लाखों की संख्या में श्रद्धालु यहां माता के दर्शन के लिए आते हैं।

रतनगढ़ वाली माता का इतिहास


बात लगभग 900 साल पुरानी है जब मुस्लिम तानाशाह अलाउद्दीन खिलजी का जुल्म ढहाने का सिलसिला जोरों पर था। तभी खिलजी ने अपनी बद नियत के चलते सेंवढा से रतनगढ़ में आने वाला पानी बंद कर दिया था। रतन सिंह की बेटी मांडूला व उनके भाई कुंवर गंगा रामदेव जी ने अलाउद्दीन खिलजी के फैसले का कड़ा विरोध किया। इसी विरोध के चलते अलाउद्दीन खिलजी ने वर्तमान मंदिर रतनगढ़ वाली माता के परिसर में बने किले पर आक्रमण कर दिया। जो कि राजा रतन सिंह की बेटी मांडुला को नागवार गुजरा। राजा रतन सिंह की बेटी मांडुला बहुत सुंदर थी। उन पर मुस्लिम आक्रांताओं की बुरी नजर थी। इसी बुरी नजर के साथ खिलजी की सेना ने महल पर आक्रमण किया था। मुस्लिम आक्रमणकारियों की बुरी नजर से बचने के लिए बहन मांडुला तथा उनके भाई कुंवर गंगा रामदेव जी ने जंगल में समाधि ले ली। तभी से यह मंदिर अस्तित्व में आया। इस मंदिर की चमत्कारिक कथाएं भी बहुत हैं।

बाढ़ में बह गया पुल, फिर भी दर्शन को पहुंच रहे भक्त


गत वर्ष सितम्बर माह में आयी सिंध नदी में बाढ़ के चलते सिंध नदी पर बना हुआ पुल बह जाने से श्रद्धालुओं के पहुंचने की व्यवस्था प्रभावित हुई। यह रास्ता दतिया, झांसी और बुंदेलखंड के अन्य जिलों के भक्तों के मंदिर पहुंचने का सबसे सुगम मार्ग था। लेकिन माँ रतनगढ़ वाली माता के भक्तों के लिए यह अवरोध भी आड़े नहीं आया। पुल टूटने से भक्त श्रद्धालु 100 किलोमीटर की अतिरिक्त दूरी तय करके माता के दर्शन करने पहुंच रहे हैं।

विष पर बंधन लगा देते हैं कुंवर बाबा


मान्यताओं के अनुसार कुंवर बाबा रतनगढ़ वाली माता के भाई हैं, जो अपनी बहन से बेहद स्नेह करते थे। कहा जाता है कि कुंवर महाराज जब जंगल में शिकार करने जाते थे तब सारे जहरीले जानवर अपना विष बाहर निकाल देते थे। इसीलिए जब किसी इंसान को कोई विषैला जानवर काट लेता है तो उसके घाव पर कुंवर महाराज के नाम का बंधन लगाते हैं। इसके बाद इंसान भाई दूज या दिवाली के दूसरे दिन कुंवर महाराज के मंदिर में दर्शन करता है। सर्पदंश के पीड़ित व्यक्तियों को सर्पदंश की पीड़ा से यहां मुक्ति मिलती है। व्यक्ति मंदिर से करीब दो किलोमीटर दूर स्थित सिंध नदी में स्नान करते ही बेहोश हो जाता है। उसे स्ट्रेचर की मदद से मंदिर तक लाया जाता है। प्रशासन द्वारा लगभग तीन हजार स्ट्रेचर की व्यवस्था की जाती है और कुंवर बाबा के मंदिर पर पहुंचकर जल के छींटे पड़ते ही सर्पदंश से पीड़ित व्यक्ति पूरी तरह से स्वस्थ हो जाता है।

छत्रपति शिवाजी ने कराया था निर्माण


यह मंदिर छत्रपति शिवाजी महाराज की मुगलों के ऊपर विजय की निशानी है। यह युद्ध 17वीं सदी में छत्रपति शिवाजी और मुगलों के बीच हुआ था। तब माता रतनगढ़ वाली और कुंवर महाराज ने मदद की थी। कहा जाता है कि रतनगढ़ वाली माता और कुंवर बाबा ने शिवाजी महाराज के गुरु रामदास जी को देवगढ़ के किले में दर्शन दिए थे। शिवाजी महाराज को मुगलों से फिर से युद्ध के लिए प्रेरित किया था। फिर जब पूरे भारत पर राज करने वाले मुगल शासन की सेना वीर मराठा शिवाजी की सेना से टकराई, तो मुगलों को पूरी तरह पराजय का सामना करना पड़ा और मुगल सेना को परास्त करने के बाद शिवाजी ने इस मंदिर का निर्माण कराया था। यहां मन्नतों के पूरी होने की भी चर्चाएं काफी मशहूर हैं। यहां पर भक्त अपनी-अपनी तरह से श्रद्धा प्रकट करते हैं। कोई नंगे पांव तो कोई जमीन पर लेट-लेट कर यहां आता है। कोई जौं बोकर माता रानी की नौ दिन तक सेवा करते हैं। इसके बाद नौ वें दिन जौ चढ़ाने पैदल चलकर मंदिर पहुंचते हैं। मान्यता हैं कि यहां से हर भक्त अपनी मुरादें पूर्ण कर अपने घर खुशियां लेकर वापस लौटता है। मईया अपने भक्तों को कभी निराश नहीं करती हैं। मईया भक्तों की हर समस्या को दूर कर उनकी मनोकामनाएं अवश्य पूरी करती हैं।

बीहड़ के डाकू (बागी) भी चढ़ाते थे यहां घंटा


बीहड़, बागी और बंदूक के लिए कुख्यात रही तीन प्रदेशों में फैली चंबल घाटी का डकैतों से रिश्ता करीब 200 वर्ष पुराना है। यहां 500 कुख्यात डकैत रहा करते थे। रतनगढ़ वाली माता मंदिर में चंबल इलाके के सभी डाकू (बागी) इस मंदिर में पुलिस को चैलेंज करके दर्शन करने आते थे। लेकिन इस दौरान एक भी डकैत पकड़ा नहीं गया। चंबल के बीहड़ भी, डाकू स्वीकार नहीं करते थे। जिसने इस मंदिर में घंटा ना चढ़ाया हो। इलाके का ऐसा कोई बागी नहीं जिसने यहां आकर माथा ना टेका हो। माधव सिंह, मोहर सिंह, मलखान, मानसिंह, जगन गुर्जर से लेकर फूलन देवी ने माता के चरणों में माथा टेक कर, घंटा चढ़ा कर आशीर्वाद लिया है। ऐसा कहा जाता है इस दौरान मंदिर में कोई भक्त मिला तो डाकुओं ने उनके साथ वारदात नहीं की।


विंध्याचल पर्वत पर स्थित है माता का मंदिर,मंदिर में घंटा चढ़ाने की है मान्यता


मन्नत पूरी होने पर श्रृद्धालुओं द्वारा प्रतिवर्ष सैकड़ों घंटे मां के दरबार में चढ़ाए जाते हैं। मंदिर पर एकत्रित हुए घंटों की पूर्व में नीलामी की जाती थी। वर्ष 2015 में जिला प्रशासन की मंशा पर यहां पर एकत्रित घंटों को गलवाकर विशाल घंटा बनवाकर चढ़ाया गया है। रतनगढ़ माता मंदिर पर नवरात्र 16 अक्टूबर 2015 में देश का सबसे वजनी, बजने वाला पीतल के घंटे का उद्घाटन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने किया था। इसे नौ धातुओं से मिलाकर बनाया गया है। इस घंटे की खासियत यह है कि इसको कोई भी बजा सकता है।चाहे चार साल का बालक हो या अस्सी साल का कोई बुजुर्ग। इस विशाल घंटे को टांगने के लिए लगाए गए एंगल व उन पर मड़ी गई पीतल और घंटे के वजन को जोड़ा जाए तो लगभग 50 क्विंटल होता है। इस घंटे को प्रख्यात मूर्ति शिल्पज्ञ प्रभात राय ने तैयार किया है। घंटे की ऊंचाई लगभग 6 फुट है और गोलाई 13 फुट है।


इस तरह पहुंच सकते हैं माता के दरबार

How to Reach on Ratangarh Mata Mandir


ट्रेन व सड़क मार्ग द्वारा: इस मंदिर के दर्शन के लिए आप भारत के किसी भी कोने से आ सकते हैं। आप झाँसी, दतिया व ग्वालियर स्टेशन के माध्यम से यह तक आसानी से पहुँच सकते है। सबसे पहले आप झाँसी, दतिया व ग्वालियर के बस स्टेंड पर जाकर रतनगढ़ वाली माता जाने वाली बस के द्वारा श्री रतनगढ़ माता रोड, मध्य प्रदेश 475682 पहुँच सकते हैं।


हवाई यात्रा के द्वारा: रतनगढ़ मंदिर के सबसे नजदीक हवाई अड्डा ग्वालियर में स्थित है। आप ग्वालियर हवाई अड्डा पर उतरकर आसानी से बस लेकर माता के मंदिर तक पहुँच सकते है।

https://ratangarhmata.in/

रतनगढ़ मेला 2022 में कब लगेगा  

रतनगढ़ माता मेला कैलेंडर के अनुसार-  

रतनगढ़ माता मेला 2022 – बुधवार, 26 अक्टूबर

रतनगढ़ माता मेला 2023 – मंगलवार, 14 नवंबर

रतनगढ़ माता मेला 2024 – रविवार, 3 नवंबर

रतनगढ़ माता मेला 2025 – गुरुवार 23 अक्टूबर

रतनगढ़ माता मेला 2026 – बुधवार, 11 नवंबर

रतनगढ़ माता मेला 2027 – रविवार, 31 अक्टूबर

रतनगढ़ माता मेला 2028 – गुरुवार, 19 अक्टूबर

रतनगढ़ माता मेला 2029 – बुधवार, 7 नवंबर

रतनगढ़ माता मेला 2030 – सोमवार, 28 अक्टूबर

RATANGARH MATA TEMPLE,DATIA (M.P.)

https://www.youtube.com/watch?v=GgH3NriIpTo

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HOW TO REACH ON RATANGARH MATA TEMPLE

हवाईजहाज द्वारा

रतनगढ़ से 78 किलोमीटर दूर ग्वालियर निकटतम हवाई अड्डा है |

ट्रेन द्वारा-निकटतम रेलवे स्टेशन दतिया है जो रतनगढ़ से 65 किलोमीटर दूर है।

सड़क के द्वारा-

रतनगढ़ से दतिया 65 किलोमीटर और ग्वालियर शहर 78 किलोमीटर है, जो सड़क मार्ग से अच्छी तरह से कनेक्ट है | 

From Gwalior:

Google direction From Gwalior
http://goo.gl/maps/i1fzE

  

Google direction from Datia
http://goo.gl/maps/eDyau

RATANGARH MATA MANDIR

Ratangarh Mata Temple, Shri Ratangarh Mata Road, Pali, Madhya Pradesh, India

Currently Temple is open,Kindly follow COVID 19 Guidelines

Open Monday to Sunday 7:00 A.M. to 9:00 P.M.

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