History of Ratangarh Mata Mandir

दतिया के विंध्याचल पर्वत पर रतनगढ़ वाली माता विराजी हैं। यह मंदिर मध्य प्रदेश के दतिया जिला मुख्यालय से 65 किलोमीटर दूर मर्सेनी (सेंवढा) गांव के पास स्थित है। बीहड़ इलाका होने की वजह से यह मंदिर घने जंगल में पड़ता है। यह स्थान पूर्णतः प्राकृतिक और चमत्कारिक है। साथ ही एक दर्शनीय स्थल भी है। जहां वर्षभर हजारों लोग दर्शन करने के लिए आते हैं। प्राकृति का सुंदर रूप मंदिर के चारों ओर देखने को मिलता है। सभी दिशाओं में जंगल ही जंगल है। उसमें टेढ़ी-मेड़ी बहती हुई सिंध नदी भी मंदिर की पहाड़ी को लगभग दो ओर से घेरे हए है। जो अपने आप में अद्भुत प्रतीत होती है। रतनगढ़ की माता धार्मिक और प्राकृतिक वैभव के साथ-साथ ही डकैतों की आराध्य स्थली के रूप में भी विख्यात है।

नवरात्रि आते ही देवी मंदिरों में भक्तों का तांता लग जाता है। मां का प्यार और आस्था दूर-दूर से भक्तों को अपने पास दर्शन को बुला लेती हैं। ऐसा ही प्रसिद्ध मंदिर है मध्यप्रदेश के दतिया जिले में, जहां स्थित विंध्याचल पर्वत पर रतनगढ़ वाली माता विराजी हैं। प्रसिद्ध रतनगढ़ माता के मंदिर का इतिहास काफी पुराना है। इसके पास से ही सिंध नदी बहती है। यहां अपनी मन्नतों की पूर्ति के लिए आने वाले श्रद्धालु दो मंदिरों के दर्शन करते हैं। इनमें एक मंदिर है रतनगढ़ माता का और दूसरा कुंवर बाबा का मंदिर है। दीवाली की दूज पर लगने वाले मेले में यहां 20 से 25 लाख लोग दर्शन करने आते हैं। साथ-साथ नवरात्र में भी हर साल लाखों की संख्या में श्रद्धालु यहां माता के दर्शन के लिए आते हैं।

रतनगढ़ वाली माता का इतिहास-

बात लगभग 900 साल पुरानी है जब मुस्लिम तानाशाह अलाउद्दीन खिलजी का जुल्म ढहाने का सिलसिला जोरों पर था। तभी खिलजी ने अपनी बद नियत के चलते सेंवढा से रतनगढ़ में आने वाला पानी बंद कर दिया था। रतन सिंह की बेटी मांडूला व उनके भाई कुंवर गंगा रामदेव जी ने अलाउद्दीन खिलजी के फैसले का कड़ा विरोध किया। इसी विरोध के चलते अलाउद्दीन खिलजी ने वर्तमान मंदिर रतनगढ़ वाली माता के परिसर में बने किले पर आक्रमण कर दिया। जो कि राजा रतन सिंह की बेटी मांडुला को नागवार गुजरा। राजा रतन सिंह की बेटी मांडुला बहुत सुंदर थी। उन पर मुस्लिम आक्रांताओं की बुरी नजर थी। इसी बुरी नजर के साथ खिलजी की सेना ने महल पर आक्रमण किया था। मुस्लिम आक्रमणकारियों की बुरी नजर से बचने के लिए बहन मांडुला तथा उनके भाई कुंवर गंगा रामदेव जी ने जंगल में समाधि ले ली। तभी से यह मंदिर अस्तित्व में आया। इस मंदिर की चमत्कारिक कथाएं भी बहुत हैं।

बाढ़ में बह गया पुल, फिर भी दर्शन को पहुंच रहे भक्त-

गत वर्ष सितम्बर माह में आयी सिंध नदी में बाढ़ के चलते सिंध नदी पर बना हुआ पुल बह जाने से श्रद्धालुओं के पहुंचने की व्यवस्था प्रभावित हुई। यह रास्ता दतिया, झांसी और बुंदेलखंड के अन्य जिलों के भक्तों के मंदिर पहुंचने का सबसे सुगम मार्ग था। लेकिन माँ रतनगढ़ वाली माता के भक्तों के लिए यह अवरोध भी आड़े नहीं आया। पुल टूटने से भक्त श्रद्धालु 100 किलोमीटर की अतिरिक्त दूरी तय करके माता के दर्शन करने पहुंच रहे हैं।

विष पर बंधन लगा देते हैं कुंवर बाबा-

मान्यताओं के अनुसार कुंवर बाबा रतनगढ़ वाली माता के भाई हैं, जो अपनी बहन से बेहद स्नेह करते थे। कहा जाता है कि कुंवर महाराज जब जंगल में शिकार करने जाते थे तब सारे जहरीले जानवर अपना विष बाहर निकाल देते थे। इसीलिए जब किसी इंसान को कोई विषैला जानवर काट लेता है तो उसके घाव पर कुंवर महाराज के नाम का बंधन लगाते हैं। इसके बाद इंसान भाई दूज या दिवाली के दूसरे दिन कुंवर महाराज के मंदिर में दर्शन करता है। सर्पदंश के पीड़ित व्यक्तियों को सर्पदंश की पीड़ा से यहां मुक्ति मिलती है। व्यक्ति मंदिर से करीब दो किलोमीटर दूर स्थित सिंध नदी में स्नान करते ही बेहोश हो जाता है। उसे स्ट्रेचर की मदद से मंदिर तक लाया जाता है। प्रशासन द्वारा लगभग तीन हजार स्ट्रेचर की व्यवस्था की जाती है और कुंवर बाबा के मंदिर पर पहुंचकर जल के छींटे पड़ते ही सर्पदंश से पीड़ित व्यक्ति पूरी तरह से स्वस्थ हो जाता है।

छत्रपति शिवाजी ने कराया था निर्माण-

यह मंदिर छत्रपति शिवाजी महाराज की मुगलों के ऊपर विजय की निशानी है। यह युद्ध 17वीं सदी में छत्रपति शिवाजी और मुगलों के बीच हुआ था। तब माता रतनगढ़ वाली और कुंवर महाराज ने मदद की थी। कहा जाता है कि रतनगढ़ वाली माता और कुंवर बाबा ने शिवाजी महाराज के गुरु रामदास जी को देवगढ़ के किले में दर्शन दिए थे। शिवाजी महाराज को मुगलों से फिर से युद्ध के लिए प्रेरित किया था। फिर जब पूरे भारत पर राज करने वाले मुगल शासन की सेना वीर मराठा शिवाजी की सेना से टकराई, तो मुगलों को पूरी तरह पराजय का सामना करना पड़ा और मुगल सेना को परास्त करने के बाद शिवाजी ने इस मंदिर का निर्माण कराया था। यहां मन्नतों के पूरी होने की भी चर्चाएं काफी मशहूर हैं। यहां पर भक्त अपनी-अपनी तरह से श्रद्धा प्रकट करते हैं। कोई नंगे पांव तो कोई जमीन पर लेट-लेट कर यहां आता है। कोई जौं बोकर माता रानी की नौ दिन तक सेवा करते हैं। इसके बाद नौ वें दिन जौ चढ़ाने पैदल चलकर मंदिर पहुंचते हैं। मान्यता हैं कि यहां से हर भक्त अपनी मुरादें पूर्ण कर अपने घर खुशियां लेकर वापस लौटता है। मईया अपने भक्तों को कभी निराश नहीं करती हैं। मईया भक्तों की हर समस्या को दूर कर उनकी मनोकामनाएं अवश्य पूरी करती हैं।

बीहड़ के डाकू (बागी) भी चढ़ाते थे यहां घंटा-

बीहड़, बागी और बंदूक के लिए कुख्यात रही तीन प्रदेशों में फैली चंबल घाटी का डकैतों से रिश्ता करीब 200 वर्ष पुराना है। यहां 500 कुख्यात डकैत रहा करते थे। रतनगढ़ वाली माता मंदिर में चंबल इलाके के सभी डाकू (बागी) इस मंदिर में पुलिस को चैलेंज करके दर्शन करने आते थे। लेकिन इस दौरान एक भी डकैत पकड़ा नहीं गया। चंबल के बीहड़ भी, डाकू स्वीकार नहीं करते थे। जिसने इस मंदिर में घंटा ना चढ़ाया हो। इलाके का ऐसा कोई बागी नहीं जिसने यहां आकर माथा ना टेका हो। माधव सिंह, मोहर सिंह, मलखान, मानसिंह, जगन गुर्जर से लेकर फूलन देवी ने माता के चरणों में माथा टेक कर, घंटा चढ़ा कर आशीर्वाद लिया है। ऐसा कहा जाता है इस दौरान मंदिर में कोई भक्त मिला तो डाकुओं ने उनके साथ वारदात नहीं की।

विंध्याचल पर्वत पर स्थित है माता का मंदिर,मंदिर में घंटा चढ़ाने की है मान्यता-

मन्नत पूरी होने पर श्रृद्धालुओं द्वारा प्रतिवर्ष सैकड़ों घंटे मां के दरबार में चढ़ाए जाते हैं। मंदिर पर एकत्रित हुए घंटों की पूर्व में नीलामी की जाती थी। वर्ष 2015 में जिला प्रशासन की मंशा पर यहां पर एकत्रित घंटों को गलवाकर विशाल घंटा बनवाकर चढ़ाया गया है। रतनगढ़ माता मंदिर पर नवरात्र 16 अक्टूबर 2015 में देश का सबसे वजनी, बजने वाला पीतल के घंटे का उद्घाटन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने किया था। इसे नौ धातुओं से मिलाकर बनाया गया है। इस घंटे की खासियत यह है कि इसको कोई भी बजा सकता है।चाहे चार साल का बालक हो या अस्सी साल का कोई बुजुर्ग। इस विशाल घंटे को टांगने के लिए लगाए गए एंगल व उन पर मड़ी गई पीतल और घंटे के वजन को जोड़ा जाए तो लगभग 50 क्विंटल होता है। इस घंटे को प्रख्यात मूर्ति शिल्पज्ञ प्रभात राय ने तैयार किया है। घंटे की ऊंचाई लगभग 6 फुट है और गोलाई 13 फुट है।

 

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