Ratangarh Mata Mandir (रतनगढ़ धाम दतिया)
रतनगढ़-एक ऐतिहासिक स्थल 1986 में लिखित पुस्तक बाबूलाल गोस्वामी रतनगढ़ माता परमार वंश
बुन्देलखण्ड के उत्तरीवृत्त में विन्ध्य पर्वतमाला के छोर पर ‘रतनगढ़’ स्थित है । वहाँ एक ऊँची चोटी पर देवी का मन्दिर है। मन्दिर के कुछ फासले पर एक चतुष्कोण चबूतरा है, जिस पर छोटी सी मढ़िया में स्फटिक खिलौना जैसा एक घोड़ा है। एक घोड़ा पहले से कुछ बड़ा बाहर रखा है। उन्हें यहाँ की बोली में “घुल्ला” कहते हैं। देवी का नाम माडूला है, परन्तु अब “रतनगढ़ की माता के नाम” से प्रसिद्ध है । चबूतरा को “कुंवर” का स्थान कहते हैं। लोकमान्यताएँ तो अचरज भरी हैं; लेकिन वहाँ प्रत्यक्ष देखने के अनन्तर तर्क और अन्धविश्वास के प्रति उपेक्षा दोनों का अवसान हो जाता है। शेष रहता है चम- स्कार, जो साफ दिखाई देता है। दीपावली की दोज के दिन यहाँ लक्खी मेला लगता है । हमें लक्खी क्या दोलक्खी मेला देखने का अवसर मिला। इस मेले का भाई दोज के दिन आयोजन एवं देवी और कुंवर के सन्दर्भ ऐतिहासिक हैं; किन्तु समय बीतते-बीतते देवी रूप में बदल चुके हैं। इतिहास के पृष्ठ नष्ट हो गये, स्मृतियाँ विलीन हो गईं।
14 नवम्बर 85 को हम पत्रकारों के झुण्ड में शामिल होकर जिला पुलिस अधीक्षक श्री गिरीश कुमार तिवारी के साथ रतनगढ़ की यात्रा करने गये। उस दिन दीपावली की दोज थी । हमारा काफिला पाँच जीपों का था । श्री गिरीशजी की गाड़ी सबसे आगे और पीछे की जीप में टी. आई. सुभाष तिवारी चल रहे थे। आगे और पीछे की गाड़ियों में वायरलेस फिट थे तथा एक-एक ब्रेनगन वाला होशियार जवान चौकस चल रहा था। श्री गिरीश का उद्देश्य पत्रकारों को वह महत्वपूर्ण और मार्के का स्थान निरीक्षण कराने का था जहाँ उन्होंने कुछ दिन पूर्व डाकुओं को धराशायी करने में कामयावी हासिल की थी। हमारा लक्ष्य उस विलक्षण प्राकृतिक भूमि के दर्शन करने का था, जहाँ के शूरमाओं ने महमूह गज- नवी को भारतीय रणकौशल से परिचित कराया था, अलाउद्दीन खिलजी को मार्ग बदलकर दक्षिण की ओर जाने को विवश किया था और जहाँ बैठकर समर्थ गुरु रामदाम ने छत्रपति शिवाजी को औरंगजेब के चंगुल से बाहर होने की योजना बनाई थी ।
Ratangarh Mata Mandir (रतनगढ़ धाम दतिया)
परमारों का पराक्रम
विन्ध्याचल पर्वतमाला की इस उत्तरी उपत्यका पर सर्वप्रथम परमारों ने राज्य स्था- पित किया था। रतनगढ़ राजधानी थी। जिस स्थान पर रतनगढ़ के भग्नावशेष हैं, वहाँ पहुँचना बड़ा कठिन था। चारों ओर विन्ध्यश्रृंखला की आकाश चूमने वाली चोटियाँ
प्रहरी का काम करती हैं। उपत्यका पर घना जंगल और वेग से बहने वाले नाले मनुष्य को
वहाँ जाने से पग-पग पर व्यवधान बहुत ही घने जंगलों से घिरा है। ओर सिन्ध नदी गहरी, एक मील पहुँचने के लिए दो मार्ग हैं। एक जहाँ सिन्ध नदी पार कर जाते हैं। से रतनगढ़ साफ दीखने लगता है ।
Ratangarh Mata Mandir (रतनगढ़ धाम दतिया)देवी और कुंवर
मार्ग में कई तीन ओर से रतनगढ़ का उत्तुंग दुर्ग चोटियाँ लाँघ कर हम वहाँ पहुँचे । एक चौड़े पाट के साथ गढ़ की ढाल बनकर बहती है । वहाँ दतिया से मगुआपुरा बेरछा होकर, दूसरा भरसेनी से, भरसेनी और बेरछा सिन्ध के तटवर्ती गांव हैं। यहाँ
देवी के मन्दिर में पहले देवी की मूर्ति नहीं थी। 17वीं शताब्दी में छत्रपति शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास जी ने वहाँ देवी जी की मूर्ति की प्रतिष्ठा की थी। औरंगजेब की गिरफ्त से शिवाजी को मुक्त कराने की योजना के कार्यान्वयन तक के लिए गुरु रामदास जी वहाँ रहे थे। शिवाजी भी आगरा से मुक्त होकर सर्वप्रथम रतनगढ़ आये थे। इससे पूर्व वहाँ केवल मढ़ी थी, जिसका कथानक बहुत रोचक है ।
कहते हैं तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अलाउद्दीन खिलजी ने बुन्देलखण्ड पर आक्रमण किया उस समय रतनगढ़ में राजा रतन सेन
इटावा होकर जब परमार थे। राजा रतनसेन के एक अवयस्क राजकुमार और एक राजकुमारी थी। कहा जाता है कि राज- कुमारी का नाम “माडूला” था । अत्यन्त सुन्दर होने के कारण उसे पद्मिनी भी कहते हैं । खिलजी ने इसी पद्मिनी को प्राप्त करने के उद्देश्य से रतनगढ़ पर आक्रमण किया था । भयंकर युद्ध हुआ । रतनसेन मारे गये। राजकुल और क्षत्राणियों के साथ रतनगढ़ की हिन्दू महिलाओं ने रतनगढ़ के दुर्ग में जौहर व्रत में प्राणोत्सर्ग किये। राजा रतनसेन का जिस स्थान पर दाह-संस्कार हुआ उसे आज चिताई कहते हैं। राजा के साथ अनेक योद्धाओं का भी दाह-संस्कार किया गया था। इस युद्ध में रतनगढ़ के सूरमाओं ने लड़ते-लड़ते वीरगति प्राप्त की थी। जब एक भी न बचा तब राज कन्या तथा अबोध राजकुमार ने भी घास के ढ़ेर में आग लगाकर प्राण त्याग दिये थे। जहां राजकुमारी ने प्राणोत्सर्ग किया था उसी जगह एक छोटी सी मड़िया बना दी गई थी। मड़िया के पीछे पहाड़ की समानान्तर चोटी के छोर पर बना चबूतरा राजकुमार द्वारा प्राण त्यागने का स्थान है, जिसे ‘कुंवर का चौतरा’ कहते हैं। कालान्तर में राजकन्या और राजकुंअर देवकोटि में माने जाने लगे और उनकी पूजा होने लगी । इन भाई बहिन की स्मृति में दीपावली की भाईदाज का लक्खी मेला लगता है। मड़िया में पहले देवी की मूर्ति नहीं थी तथा ‘माला’ की मडिया के नाम से प्रसिद्ध थी । समर्थ गुरु रामदास ने उस मड़िया में देवी की मूर्ति स्थापित की। तब से रतनगढ़ की माता के नाम से मन्दिर प्रख्यात हुआ। डाकुओं का वह महत्वपूर्ण आश्रय है । मान्यता है कि प्रायः सभी डाकू डाका डालने के पहले वहाँ नारियल फोड़ते है । चम्बल- सिन्ध घाटी का कोई डाकू ऐसा नहीं हुआ जिसने वहाँ घण्टा न चढ़ाया हो । बहुत से घण्टे वहाँ अभी लटकते हैं, जिनपर डाकुओं के नाम अंकित हैं। कुछ को पुलिस अधिकारियों ने उतरवा कर जमा किया है। डाकू गिरोह रतनगढ़ के जंगलों के रक्षक भी हैं अन्यथा अभी तक पूरा जंगल साफ हो जाता ।
Ratangarh Mata Mandir रतनगढ़ का परमार वंश
स्व. श्याम सुन्दर ‘श्याम’ स्मृति ग्रन्थ-1 / 27 1986 में लिखित पुस्तक
बुन्देलखण्ड में पया, करैरा, केरुवा और बेरछा परमार राजाओं के ठिकाने प्रसिद्ध हैं। इन्हीं की एक शाखा करहिया में स्थापित हुई थी । प्रदेश के गृह राज्यमन्त्री कैप्टन जयपाल सिंह करहिया वंश के परमार ठाकुर हैं। वस्तुतः परमार क्षत्रियों का बुन्देल खण्ड में आगमन बारहवीं शताब्दी से पूर्व राजस्थान और मालवा दोनों ओर से हुआ था । वे आबू पर्वत को ही अपना मूल स्थान मानते हैं, जहाँ उनके रजवाड़े थे । आबू पर्वत का सम्पूर्ण क्षेत्र परमारों के अधिकार में था, बल्कि उसके सुदूर क्षेत्रों में परमारों का प्रभुत्व हो गया था । विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में नाडोल के चौहानों से परमारों का संघर्ष हुआ । उसी साथ अनहिलवाड़ा के चालुक्यों ने परमारों के ठिकानों पर आघात किया था । उस दुतरफी मार से परमारों के पैर उखड़ गये तथा वे यत्र-तत्र पलायन करने को विवश हुए। चौहान राजा लुम्बा ने परमारों को माउन्ट आबू त्यागने को पुनः विवश किया।
बुन्देलखण्ड के इतिहास में पवांया के परमार राजा पुण्यपाल ( 1231-56 ई.) का नाम मिलता है,
जिसे सोहनपाल बुन्देला की लड़की धर्मं कुंवरि ब्याही थी । पुण्यपाल ग्वालियर के तोमर राजा का भानेज था । इससे विदित होता है कि परमार ग्यारहवी वीं शताब्दी के अन्त में ही पवया तक आ पहुँचे थे। पुण्यपाल पंवार के चार पुत्र थे- रतनशाह जैतसिंह या जैतशाह, शंकरशाह और चन्द्रहंस ।
रतनशाह को करेरा की जागीर मिली। इनके वंशधर करेरा वाले कहलाये । जैतशाह को केरुवा, शंकर- शाह को बेरछा की जागीर मिली। इनके वंशधर बेरछा वाले कहलाये। चौथे को घाटी मया- पुर की बैठक मिली थी (बुन्देली वीर वार्ता पृष्ठ 88 ) । अस्तु बेरछा में सर्वप्रथम शंकरशाह ने स्वतन्त्र अस्तित्व के साथ अलग छोटा सा राज्य स्थापित किया था । शंकरशाह के पुत्र थे रतनसेन । इन्हीं रतनसेन ने सिन्ध नदी के उस पार रतनगढ़ दुर्ग का निर्माण कराया था । रतनसेन के बड़े भाई कनकसेन बेरछा में ही रहे । कनकसेन के पुत्र चन्द्रसेन की बेटी गढ़कुढ़ार के बुन्देला राजा मलखान 1468-1501 ई. को ब्याही थी । मलखानसिंह ने उनके सहयोग से पवांया को हस्तगत कर सिंध नदी जलप्रपात पर एक बारादरी का निर्माण कराया था। चन्द्रसेन के दो पुत्र हुए चितामणि और उदयमणि । उदयमणि की प्रारम्भ से ही भक्ति में पूर्ण निष्ठा थी । अतः वे वृन्दावन चले गए थे और हितहरिवंश जी के ज्येष्ठ पुत्र वनचन्द्र ‘चन्द्र’ जी के शिष्य होकर वहीं नेही नागरीदास के नाम से रहने लगे थे। इनकी भावज भागमती उच्चकोटि की भक्त थीं और नागरीदास के साथ बरसाने में रहने लगी थी। भग- वतमुदितजी ने अपने ग्रन्थ “रसिक अनन्यमाल” (वि. सं. 1705 ) में इनका और इनकी भावज का परिचय लिखा है कि राजा चिंतामणि अपनी रानी भागमती से असन्तुष्ट थे और वास देते थे । अतः भागमती अपने मायके ओरछा चली आई थीं, वहाँ से वे बरसाना गई थीं। बृज साहित्य में नागरीदास का जन्म संवत 1590 के लगभग माना जाता है, जो सही नहीं है । यह वह समय है कि जब वीरसिंह जू देव प्रथम ने ओरछा पर आक्रमण किया था। केशवदास मिश्र ने इस घटना का उल्लेख वीरचरित्र में किया है। दोई गढी लीने लैवरा एक वैरछा एक कहरा” । दतिया-बड़ोनी की जागीर प्राप्त होने के बाद बीरसिंहजू
देवका प्रथम सैनिक अभियान था सम्भब्ता वीरसिंह जू देव
‘के देहावसान (1592 ई.) के तुरन्त पश्चात यह अभियान किया होगा । बेरछा के राजा चितामणि इसी युद्ध में मारे गये होंगे और उनके भाई नागरीदास तब बृन्दावन चले गये होंगे ।
परमार और बुन्देला राजाओं के इतिहास के शोधकर्ताओं के लिए रतनगढ़ का मध्य क्षेत्र एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है ।
रतनगढ़ माता से संबंधहित सही जानकारी जो (परमार वंश) की हमारा उद्देश्य आपको सत्य बताना