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रतनगढ़ बाली माता मंदिर का इतिहास ।। Ratangarhwali Mata Mandir।।
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रतनगढ़ का इतिहास जानने के लिए हमें बारहवी शताब्दी से प्रारंभ करना चाहिए। उस वक्त ग्वालियर पर तोमरों का शासन था। तोमरों ने रिश्ते में अपने भानजे पुण्यपाल परमार को पवाया में बसाया। पवाया जो कि गोराघाट के आगे और डबरा से 5 किलोमीटर दूर एक पुरातात्विक नगर है। पवाया को धूमेश्वर महादेव और संस्कृत कवि भवभूति के लिए भारत वर्ष में जाना जाता है। पवाया से ही पुण्यपाल ने अपने शासन का विस्तार बेरछा तक किया। राजा पुण्यपाल ने 1231 से 1256 तक शासन किया। उनके चार पुत्र हुए #रतनशाह_जैतशाह_शंकरशाह_चंद्रहंस राजा पुण्यपाल परमार ने रतनशाह को करैरा, जैतशाह को केरुवा एवं शंकर शाह को बेरछा की जागीर दी थी। बेरछा की जागीर मिलने के बाद शंकरशाह ने इसे स्वतंत्र रियासत के तौर पर बसाया और वह बेरछा के पहले राजा बने। शंकर शाह के पुत्र हुए #कनकसेन और #रतनसेन इनमें कनकसेन वेरछा रियासत के राजा रहे कनकसेन के भाई रतनसेन ने अपनी रियासत के गांव रतनगढ़ जो कि सिंध नदी के दूसरी ओर स्थित था, पर एक दुर्ग का निर्माण करवाया। यह तेरहवी शताब्दी का उत्तरार्ध था। पराक्रमी राजा रतनसेन अपने परिवार सहित दुर्ग में निवास करते हुए अपनी छोटी सी रियासत का संचालन करने लगे। रतनसेन के #9_पुत्र_एक_पुत्री_माण्डुला थी माताभगवती की उपासक माण्डूला देखने में अतिसुंदर थी । इतिहासकारों ने लिखा है कि तेरहवी शताब्दी में ही अलाउद्दीन खिलजी अपनी सीमाओं का विस्तार करते हुए इटावा तक आ गया। इसी दौरान उसे देवगढ़ के राजा जो कि #रतनसेन_से_ईर्ष्या_रखते_थे ने मांडूला की सुंदरता के बारे मे बताया। अलाउद्दीन खिलजी ने राजा रतनसेन के समक्ष विवाह का प्रस्ताव भिजवाया जिसे रतनसेन ने अस्वीकार कर दिया। नाराज अलाउद्दीन खिलजी ने रतनगढ़ पर आक्रमण कर दिया। अलाउद्दीन खिलजी #मरसेनी_चरोखरा के रास्ते रतनगढ़ पहुंचा। रतनसेन एवं खिलजी को सेनाओं के बीच भीषण युद्ध हुआ। देवगढ़ के राजा ने खिलजी को उस द्वार का पता दे दिया जिससे रतनगढ़ रसद पहुंचती थी। खिलजी ने दुर्ग के उस दरवाजे पर कब्जा कर लिया और अंदर रसद जाना बंद हो गई। रसद के अभाव में सेना कमजोर पड़ती गई। अंतिम विकल्प के रूप में #रतनसेन_अपनी_सेना_और_पुत्रों सहित सीधे युद्ध के मैदान में कूद पड़े। राजपूत सेना की संख्या खिलजी के सामने काफी कम थी और कम समय में ही राजा रतनसेन को बीरगति प्राप्त हुई। उनके पुत्र भी एक एक कर वीरगति को प्राप्त होते गए। यहां राजपूताना शोर्य की गाथा भी देखी गई। जब किले के अंदर महिलाओं ने देखा कि उनके पति युद्ध में शहीद हो चुके हैं तो राजा रतनसेन की रानी सहित उन्होने आत्मोत्सर्ग कर लिया।
#राजकुमारी_मांडूला_को_लगा कि यह सब उन्हीं के कारण हुआ। पर वह किसी भी तरह खिलजी के कब्जे में नहीं जाना चाहती थीं। प्रख्यात विद्वान पं. गंगाराम शास्त्री के सनकेश्वर सतक के अनुसार देवी भक्त मांडूला ने #पृथ्वी_माता_से_आह्वान_किया कि वह उन्हें अपनी गोद में ले लें और वह धरती में समा गई। युद्ध की समाप्ति परमार राजा #रतनसेन_की_सेना_समेत मौत के साथ हुई। खिलजी ने जय दुर्ग में प्रवेश किया तो वहां जलती। चिताओं के अलावा उसे कुछ न मिला। क्रोधित होकर उसने #देवगढ़_के_राजा_को_वहीं_बुलाया और उसकी भी #हत्या कर दी। खिलजी की सेनाओं ने रतनगढ़ के किले को काफी क्षति पहुंचाई। वर्तमान में जहां रतनगढ़ का मंदिर बना है वहां पहले #मांडूला_की_मड़िया हुआ करती थी, यही वह स्थान है जहां देवी भक्त मांडूला ने प्राण त्यागे थे। मुगल सेना के लोगों के मरने के बाद जहां उन्हें दफनाया गया वह हजीरा अभी भी मरसेनी के आगे बना है। राजा रतनसेन के साथ उनके सैनिकों की अंत्योष्टि चिताई में हुई तथा कुमारों की याद में वर्तमान कुंअर साहब के स्थान पर चबूतरा बनाया गया। पहाड़ी पर बना किला अवशेष के रूप में कुअर बाबा के पीछे अभी भी है। हालांकि उसके ऊपरी हिस्से पर कब्जा होने के कारण लोग अंदर नही जा पाते । #सिद्ध_पीठ_रतनगढ धाम(भाग_2) #Ratangarh_dham_datia #मंदिर_की_स्थापना तेरहवी शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक रतनगढ़ पर कोई मंदिर नहीं था। यहां देवी उपासक #मांडूला की एक मड़िया बनी थी। जिस स्थान पर मांडूला की मढ़ी बनी थी, वहीं उनका पूजा स्थल था और चार सौ वर्ष तक एक #चमत्कारिक_सिद्ध_स्थल_के_रूप में पहचाना जाता था। सोलहवीं शताब्दी में जब #महाराजा_छत्रपति_शिवाजी_औरंगजेब_के_चंगुल में फंस गए उस वक्त उनके गुरू #समर्थ_रामदास_स्वामी रतनगढ़ पर स्थित मांडूला मड़िया की ख्याति सुनकर यहां पहुंचे। उन्होंने देवी की आराधना की तथा अनुष्ठान प्रांरभ कर दिया। इसका प्रभाव यह हुआ कि #छत्रपति_शिवाजी_मिठाई_की_टोकरी में बैठ कर कैदखाने से आजाद होने में सफल रहे। उन्होंने अंतिम आहुति देकर यज्ञ को पूर्ण करवाया। #समर्थ_गुरूरामदास_को_देवी_ने_दर्शन_दिए। इसके बाद समर्थ गुरू रामदास ने मड़िया को मंदिर में तब्दील करवाया समर्थ गुरू रामदास तथ छत्रपति शिवाजी ने रतनगढ़ के मंदिर में देवी प्रतिमा की स्थापना की थी। और इस प्रकार मंदिर की स्थापना सत्रहवीं शताब्दी में हुई। इसकी महिमा सदियों से बनी हुई है। #विध्यांचल पर्वत श्रंखलाओं पर बना यह मंदिर धार्मिक पर्यटन का केंद्र है। यहां आने वाले लाखों श्रद्धालुओं द्वारा घने जंगल की विहंगम तस्वीरों तथा अद्भुत् चमत्कार के दर्शन होते हैं। #रतनगढ़_मेला रतनगढ़ पर सिद्धपीठ का निर्माण होने के बाद चमत्कारों का सिलसिला देश भर में फैलने लगा। माता के दर्शनों से लोगो को इच्छित फल की प्राप्ति होने लगी तो #कुँअर_बाबा_द्वारा_सर्पदंश अथवा अन्य #जहरीले_जन्तु_से_पीड़ित लोगों को #जीवन_दान दिया जाने लगा। यह स्थान भाई बहन के प्रेम और बलिदान के लिए भी प्रसिद्ध हो गया और धीरे धीरे #दीपावली_की_दौज के दिन यहां मेला आयोजन का सिलसिला चला। बुंदेला राजाओं ने देवी की उपासना की। आजादी के बाद इस स्थान की ओर किसी ने ध्यान नही दिया और घने जंगल में स्थित होने के कारण यह #डकैतों_की_शरणस्थली बन गया। बावजूद इसके यहां मेले के आयोजन का सिलसिला जारी रहा। दो दशक पूर्व यहां से डकैतों को समाप्त कर दिया गया। तब से दीपावली की दौज के अलावा चीत्र नवरात्रि तथा शारदीय नवरात्रि के मेलों का आयोजन प्रारंभ हो गया। वर्तमान में प्रति सोमवार यहां मेला लगता है। प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु यहां आते है। मंदिर की व्यवस्था का संचालन #कलेक्टर_दतिया की अध्यक्षता वाली रतनगढ़ सेवा समिति द्वारा किया जा रहा है। आम दिनों में जब किसी को #सर्प_बिच्छू_अथवा_अन्य_जहरीला_जन्तु काट लेता है तो उसे माता एवं कुंअर बाबा के नाम का #बंध लगा दिया जाता है। वह तत्काल स्वस्थ्य हो जाता है। पर दीपावली की दौज को उसे एक बार मंदिर जाना पड़ता है। मंदिर आते ही #मुंह_से_झाग आने लगता है। वह फिर से बेहोश हो जाता है। मंदिर की परिक्रमा लगाते ही वह पुनः स्वस्थ्य हो जाता है। यह चमत्कार लाखों लोग हर वर्ष देखते हैं।