श्री पीताम्बरा पीठ परिचय
भारतवर्ष के हृदय क्षेत्र मध्य प्रदेश में स्थित दतिया नामक नगर अपने पौराणिक एवं ऐतिहासिक महत्व के लिए विश्व विख्यात है। कहा जाता है कि इस नगर का नाम शिशुपाल के भाई दन्तवक्त्र के नाम पर पड़ा जो कि कालान्तर में दतिया नाम से प्रसिद्ध हुआ। जुलाई 1929 को एक युवा संन्यासी झाँसी से ग्वालियर जाते हुए एक रात के लिए इस नगर में रुके। इस छोटे से शहर में संस्कृत के नाना उद्भट विद्वानों को देखकर वे यहीं के हो कर रह गए। उन महात्मा का नाम कोई नहीं जानता था इसलिए नगरवासी उन्हें ससम्मान ‘श्री स्वामी जी महाराज’ कहने लगे। नगर के विविध स्थानों पर रहते हुए दिसंबर 1929 को वे श्री वनखण्डेश्वर परिसर में पहुँचे। इस स्थान को देखते ही यहाँ पूर्व में हुई तपस्याओं का तेज उन्हें प्रतीत हुआ, जिससे आनंन्दित हो त्रिकालज्ञ श्री स्वामी जी ने वहीं पर रहकर तप करने का निश्चय किया। परिसर में ही एक छोटा सा कमरा था जिसपर खपरैल की छत थी एवं उत्तर दिशा में एक टूटा दरवाज़ा था, जो बन्द तक नहीं होता था। श्री स्वामी जी ने इसी कक्ष में पाँच वर्ष तक तपस्या करने के पश्चात ज्येष्ठ कृष्ण पञ्चमी संवत् 1992 विक्रमी (1935 ई०) को श्री पीताम्बरा माई की प्राण प्रतिष्ठा की। आज यह कक्ष माई के मन्दिर का गर्भ गृह है और यह स्थान समस्त ब्रहमाण्ड में श्री पीताम्बरा पीठ के नाम से विख्यात है।
वर्णित महाभाग भगवती श्री पीताम्बरा के अलावा, पीठ अन्य देवताओं के तेज से दैदीप्यमान है। पीठ में भगवती श्री विद्या, भगवती श्री धूमावती, श्री वनखण्डेश्वर महादेव जी, श्री विद्या साधना के प्रधान ऋषियों में भी अग्रणी भगवान श्री परशुराम, श्री हनुमान जी, श्री कालभैरव जी एवं श्री बटुक भैरव जी, तन्त्रशास्त्र के आख्याता श्री षडाम्नाय शिव, श्री स्वामी जी की समाधि पर विराजमान श्री अमृतेश्वर महादेव, भगवती श्री पीताम्बरा द्वारा भगवान कच्छप की सहायता हेतु किए गए चरित्र निर्वहन के प्रतीक रूप में श्री हरिद्रा सरोवर एवं अपने मंदिर, कक्ष एवं पीठ के कण-कण में जीवंत श्री स्वामी जी महाराज की साक्षात उपस्थिति से पीठ उद्दीप्त है। इन समस्त देवताओं की कृपा से सिंचित पीठ से यह राष्ट्र एवं माई के भक्त अनुगृहीत हैं।
भगवती श्री पीतांबरा माई
अन्तरायतिमिरौघशान्तये स्वेष्टशक्तिकरुणाऽरुणाप्रभम्।
सन्तनोतु मुनिवृन्दसेवितम् भावगम्यमनिशं शिवं महः॥१॥
करुणापूरितचित्तां सच्चिद्रूपां परां दिव्याम्।
ब्रह्मसहचरीं तुर्यां बगलाशक्तिं प्रणौमि सौभाग्याम्॥२॥
बहुत समय पहले की बात है या यूं कहें कि तब की बात है जब समय था ही नहीं। भगवान शिव अपने स्व में लीन थे। कहां थे यह नहीं बता सकते क्योंकि कोई स्थान नहीं था। तब न सत्य था न असत्य, न दिन था न रात, न कोई मन्त्र था न कोई साधक, न कोई तीर्थ था और न भक्त थे, कोई पुण्य नहीं था कोई पाप भी नहीं था, न कोई उद्यम था। केवल शिव थे अपने स्व में लीन।
उन शिव में अचनाक स्पन्दन हुआ और शांत शिव को सपन्द ने अब उद्योत अवस्था में ला दिया था। यह स्पन्द महाचिति हैं। इनके प्रभाव से शिव में आह्लाद उत्पन्न हुआ, आह्लादित शिव के हृदय में आनंद के वर्धन हेतु लीला की इच्छा हूई। तब उनकी महाचिति ने शिव से उभय अवस्था में अपने को शक्ति रूपी दर्पण स्वरूप में प्रकट कर उसमें शिव को ही विश्व रूप में प्रतिबिंबित किया। श्री महाचिति के ऐसा करने पर तत्काल सदाशिव व ईश्वर तत्त्वों का सृजन हुआ। ईश्वर तत्त्व के अंतर्गत ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र व ईश्वर प्रकट हुए। आपने ब्रह्मा, विष्णु व रुद्र को क्रमशः सृष्टि, स्थिति व संहार कार्य में लगाया। आपके प्रति कृतज्ञता का ज्ञापन करने हेतु ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र व ईश्वर आपके महासिंहासन के चार पाए बने व सदाशिव स्वयं उस सिंहासन पर बिछावन बने। सदाशिव के हृदय पर शिव श्री कामेश्वर के सगुण रूप में विराजमान हुऐ व आप भगवती श्री कामेश्वरी के रूप में उनके अंक पर विराजमान हूईं। अपने इस सगुण रूप में आप भगवती श्री ललिता त्रिपुर सुंदरी के रूप में भासित हूईं। महाचिति का यह सगुण रूप ही इस सृष्टि का मूल है।
आपके आदेश पर श्री ब्रह्मा जी ने सृष्टि की व श्री विष्णु इसके संचालन को उद्धत हुए। नवनिर्मित सृष्टि के संचालन में अपने को समर्थ न पाने पर श्री विष्णु ने आप ही की आराधना हरिद्रा-सरोवर के तट पर प्रारंभ की। श्री विष्णु के तप से प्रभावित हो कर आप वैष्णवी शक्ति संपन्न हो उस हरिद्रा सरोवर में क्रीड़ा करने लगीं। आपकी इस लीला का रहस्य है कि आपकी कृपा से सृष्टि का संचालन सुचारु हो गया। यह आप ही की महिमा है कि पृथ्वी इत्यादि ग्रह सुचारु रूप से अपनी कक्षा में घूर्णन व पथ पर परक्रिमा कर रहे हैं। आपकी कृपा से यह सृष्टि जिसमें पृथ्वी इत्यादि असंख्य ग्रह हैं, आज सुचारु रूप से चलायमान है।
आपके मूल बीज मंत्र में पृथ्वी बीज है, इसका रहस्य यह है कि आप सृष्टि की संचालक शक्ति हैं। पृथ्वी बीज होने के कारण राजसत्ता व भूमि संबंधित विषयों की भी आप ही अधिष्ठात्री हैं।
समस्त श्रृष्टि की महाराज्ञी भगवती श्री पीतांबरा के बारें में सामान्य पशु भाव से सोचने पर मन को अपनी तुच्छता का अहसास होता है। मन कहता है, भला इतनी बड़ी महारानी कभी मेरे बारे में सोचती होंगी? पर सत्य तो यह है कि जिस क्षण आप हमारे बारे में सोचना बंद कर देंगी उसी क्षण हमारा अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। आप तो सृष्टि का भार विष्णु इत्यादि को सौंप कर सदा हमारा पालन पोषण करती रहती हैं। उदाहरणार्थ आप एक कुल-वधु को देखें, कुल-वधु अपने भरे-पूरे परिवार के कार्यों में सदा व्यस्त रहती हैं लेकिन जब मां बनती हैं तो उनका मन केवल अपनी संतान पर लगा रहता है और वह जैसे-तैसे अन्य कार्यों को निपटा कर सदा अपनी संतान के पास जाने को व्याकुल रहती हैं। ठीक इसी प्रकार से भगवती श्री पीतांबरा माई का भी प्रेम है। जिस प्रकार से कुल-वधु की संतान अबोध होने के कारण अपनी मां के परिश्रम व प्रेम को नहीं जान पाती उसी प्रकार से हम अज्ञानी भी माई के प्रेम को नहीं जान पाते। माई के इस प्रेम का साक्षात्कार हमें श्रीसद्गुरुदेव श्री स्वामी जी महाराज ने कराया है। आपने अपने तपोबल व करुणार्द हृदय से हम जैसे संसारी मनुष्यों को माई के प्रेम को अनुभूत कराने हेतु वैशाख शुक्ल चतुर्थी (सन् उन्नीस सौ चौतीस) को भगवती के श्री पीतांबरा पीठ की स्थापना की है। कहते हैं जिसे भगवती के दर्शन हो जाए वह सिद्ध हो जाता है मन सोचता है कि जो नित्य लाखों को भगवती के दर्शन कराए वह तो शिव ही होंगे।
श्री सांख्यायन तंत्र में आपको प्रज्ञाकर्षण शक्ति कहा गया है जिसका अर्थ हुआ कि कौन किस विषय को किस प्रकार से समझेगा यह आप निर्धारित करती हैं। इसका अनुपम उदाहरण श्री देवी माहात्म्यम् के तेरहवे अध्याय में देखने को मिलता है। राजा सुरथ व समाधि वैश्य के एक ही गुरु हैं महर्षि मेधा। दोनों को एक ही उपदेश मिला, दोनों ने एक साथ, एक स्थान पर तपस्या की व तप साथ-साथ पूर्ण हुआ पर वर मांगने के समय समाधि वैश्य ने मोक्ष मांगा व राजा सुरथ ने अपना राज्य मांगा। यह भगवती श्री पीतांबरा का ही प्रभाव है कि एक ही तप करने पर भी परणति की इच्छा संबंधी भाव दोनों में अलग-अलग उत्पन्न होते हैं। कोई मोक्ष की आकांक्षा रखता है तो यह केवल आप ही का अनुग्रह है। इसका प्रभाव लोक में न्यायिक वाद इत्यादि में आपकी कृपा के रूप में परिलक्षित होता है जहां आप प्रतिवादी की प्रज्ञा का कर्षण कर देती हैं लेकिन आप मुकदमे की देवी हैं यह सोचना नितांत अनुचित है। आप तो प्रज्ञाकर्षिणी हैं।
श्री महाराज जी द्वारा प्रणीत तांत्रिक व वैदिक पद्धति से भगवती की नित्य आराधना यहां अनवरत हो रही है व उन्हीं के वचनानुसार अगर ऐसा अर्चन क्रम चलता रहा तो भगवती यहां पर एक हजार वर्षों तक निवास करेंगी। हमारी श्री स्वामी जी व श्री पीतांबरा माई यही प्रार्थना है कि जब तक यह सृष्टि रहे तब तक हमें इसी प्रकार प्रेम पूर्वक स्नेह से सिंचित करते रहें।
श्री पीताम्बरा पीठ में स्थापित मंदिर
भगवती श्री धूमावती
य ए॑नं परि॒षीद॑न्ति समा॒दध॑ति चक्ष॑से।
सं॒प्रेद्धो॑ अ॒ग्निर्जिह्वाभि॒रुदे॑तु हृदया॒दधि॑॥१॥
अ॒ग्नेः संताप॒नस्या॒हमायुषे प॒दमा र॑भे।
अ॒द्धा॒तिर्यस्य॒ पश्य॑ति धू॒ममु॒द्यन्त॑मास्य॒तः॥२॥ (अ०वे० – ६.७६)
यह जो राक्षस आदि स्वस्त्ययन चाहने वाले पुरुष को मारने के लिए उद्यत हैं और घेर बैठे हैं उनके हृदय में उनको भस्म करने वाली अग्नि अपनी जिह्वा सहित उदित हो जावे॥१॥
अद्धाति ऋषि जिस अग्नि के धुएं को अपने मुख से निकलते हुए देख चुके हैं उस परम संतप्त करने वाले अग्नि के वाचक शब्द को मैं जीवन पाने के लिए आरंभ करता हूं।
भगवती श्री चिति के समस्त स्वरूपों में सर्वथा विचित्र भगवती श्री धूमावती का चरित्र है। जहां अन्य समस्त स्वरूप लौकिक सुख व मोक्ष सहज ही प्रदत्त करते हैं भगवती श्री धूमावती संसार के समस्त ऐश्वर्यों को नष्ट कर लौकिक संबंधों से मुक्त कर साधक को मोक्ष मार्ग पर ले जाती हैं। भगवती इन कृत्यों के कारण अलक्ष्मी नाम से भी प्रसिद्ध हैं। आप भगवती श्री लक्ष्मी की ज्येष्ठ भगिनी हैं, ज्येष्ठ मास की शुक्लाष्टमी को ज्येष्ठा नक्षत्र में अवतरित हूई हैं इसलिए आप को ज्येष्ठा भी कहा जाता है। आप सदा पापात्मा असुरों के मध्य निवास करती हैं इसलिए आप को निर्ऋति भी कहा जाता है।
आपकी अनादि काल से साधना की जाती है। आप की साधना से लोक पर संकट से मुक्ति का प्रभाव देखा गया है। शुम्भ-निशुम्भ से त्रस्त देव आपकी शरण में आए और शोक मुक्त हुए-
नैर्ऋत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नमः॥११॥
दुर्गायै दुर्गापारायै सारायै सर्वकारिण्यै।
ख्यत्यै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नमः॥१२॥
(श्री दुर्गा सप्तशती -५)
आप तामसिक प्रवृत्ति के लोलुप व्यक्तियों के लिए अलक्ष्मी हैं तो मुमुक्षु सन्यासियों के लिए आप मोक्षदायिनी हैं यह पूर्वोद्धृत अथर्व मन्त्रों से सिद्ध है। आपका जहां भी निवास होता है वहां पर सब ऐश्वर्य-धन नष्ट हो जाता है। यह दशा सन्यासियों के लिए सर्वोत्तम है इसलिए आप सन्यास मार्ग की परमोपास्या हैं। आपके इस स्वरूप से भय खा कर गृहस्थ भगवती श्री लक्ष्मी का वरण करते हैं- लक्ष्मीः मे नश्यतां त्वां वृणे॥
सनातन धर्म का मूल सिद्धान्त है कि प्राणों का गमन तीन मार्गोंसे होता हैः पितृयान, देवयान व मध्यमार्ग। मध्यमार्ग सुषुम्ना है यह सीधे ब्रह्मलोक ले जाता है। देवयान पर गया जीव अपवर्गों का भोग करता है। पितृयान मार्ग संसार में भटक रहे पशुओं का मार्ग है। यह प्रेतों के परलोक गमन का मार्ग है। यह मार्ग धुएं से भरा है और प्रेत इत्यादि स्वयं भी धूम्र में परिवर्तित हो जाते हैं ऐसा छांदोग्य उपनिषद् के पांचवे अध्याय के दसवें खण्ड में कहा गया है- … धूममभिसम्भवन्ति … (५)
यह मार्ग इष्टापूर्ति में संलग्न गृहस्थों (पशुओं) का है ऐसा आचार्य शड़्कर का मत है। यह आवागमन का पथ है। इस मार्ग की अधिष्ठात्री भगवती श्री धूमावती हैं। यही कारण है की बलि के लिए धूम्र वर्ण के पशु प्रशस्त हैं-
कृ॒ष्णा भौ॒मा धू॒म्रा आ॑न्तरि॒क्षा बृ॒हन्तो॑ दि॒व्याः…
(शु०य० – २४.१०)
सद्गृहस्थ अगर त्याग कर भोगने की प्रवृत्ति को अपना लें तो भगवती श्री धूमावती की कृपा से उनको धूम्रमार्ग पर नहीं जाना पड़ेगा। यह भगवती का भेदाभेद स्वरूप है।
भगवती श्री धूमावती का अभेद स्वरूप श्री गुरु चरण पादुकाब्ज की कर्णिका में निगुम्फित है। श्री गुरु चरण पादाब्ज निष्यंद मत्त चंचरीक को यह सदा सुलभ है।
भगवती श्री धूमावती दश महाविद्याओं (ब्रह्मविद्याओं) में हैं। दशमहाविद्याओं के बारे में कहा गया है कि उनकी साधना के लिए किसी देश-काल व परिस्थिति की व्याख्या नहीं है। आप सर्वदा पूजित हैं व आपकी साधना मनुष्य को ब्रह्मज्ञान प्रदत्त करती है। इनकी साधना में गुरु कृपा के अलावा दिन और नक्षत्र इत्यादि कुछ भी विचार ग्राह्य नहीं है।
नात्र सिद्धाद्यपेक्षास्ति नक्षत्रादिविचारणा।
कालादिशोधनं नास्ति नारिमित्रादिदूषणम्॥
सिद्धविद्यातया नात्र युगसेवापरिश्रमः।
नास्ति किञ्चिन्महादेवि दुःखसाध्यं कदाचन॥
(श्री मुण्डमाला तन्त्र – १)
भगवती श्री धूमावती मुमुक्षु सन्यासियों व सद्गृह्स्थों द्वारा सर्वदिन आराध्याय हैं। इनकी साधना में किसी प्रकार से दिन नक्षत्रादि का विचार नहीं है।
श्री धूमावती माई की आरती/दर्शन विवरण
रविवार से शुक्रवार को सुबह एवं रात्रि 8 बजे
शनिवार सुबह आरती एवं दर्शन
प्रातः 8 बजे से 8:30 तक
शनिवार रात्रि आरती एवं दर्शन सांय 7:30 से 8:30 तक
विशेष :- श्री धूमावती माई के दर्शन केवल आरती के समय होते हैं। (शनिवार छोड़कर)श्री वनखंडेश्वर महादेव
दतिया प्राचीन साधना स्थली है, यहां पर महाभारत कालीन शिवलिंग श्री वनखण्डेश्वर प्रतिष्ठित है जो आज वनखंडी के नाम से जाना जाता है।
वनखण्डेश्वर यूँ तो जनमानस कि भाषा में वन क्षेत्र के स्वामी प्रतीत होते हैं जो कि पूर्व काल कि परिस्थितियों के अनुरूप सही है, लेकिन सार्वकालिक देवता शिव का नाम केवल नाम न होकर सूत्र होता है इस भाव से अगर वनखण्डेश्वर का अवलोकन किया जाए तो इस महान नाम के सहस्रों अर्थ मिल जाएंगे, उदाहरण के लिए अगर वनखण्डेश्वर का सन्धि विच्छेद वन्+अखण्ड+ईश्वर किया जाए तो यहाँ भ्वादय वन धातु के अर्थ ‘शब्द करना’ से वनखण्डेश्वर अखण्ड या अद्वैत के उद्घोश करने वालों के ईश्वर ज्ञात होते हैं।
इस प्रकार से सर्व व्यापक शिव के इस गरिमामयी नाम के नाना अनुसंधान वनखण्डेश्वर कि साधना का विषय है। ऐसे भगवान शिव श्री पीताम्बरा पीठ परिसर में महाभारत काल से विराजमान हैं, यह तथ्य भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के मत से सिद्ध है। श्री वनखण्डेश्वर महादेव, ब्रह्मास्त्र मर्मज्ञ श्री अश्वत्थामा द्वारा पूजित हैं यह जगत विख्यात है। यहाँ पर आने वाले साधकों के अपने अनोखे अनुभव शब्दों में वर्णित नहीं किए जा सकते।
श्री स्वामी जी महाराज
उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में जहाँ एक ओर राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन चरम पर था वहीं दूसरी ओर अठारहवीं शताब्दी का भारतीय संस्कृति में आया पुनर्जागरण काफी प्रभावी हो चुका था। राजा राम मोहन राय सती प्रथा बंद करा चुके थे। स्वामी विवेकानन्द जी भारतीय संस्कृति और हिन्दुत्व का डंका पश्चिम में बजवा चुके थे। पंडितों का ग्रन्थ बन चुके वेदों का अध्ययन पश्चिम ने शुरु कर इनकी श्रेष्ठता को स्वीकारना शुरु कर दिया था। इस दौर में विश्व में मची इतनी हलचल से परे एक युवा संन्यासी झांसी से ग्वालियर रवाना होते हुए एक रात के लिए जुलाई सन् १९२९ ई० को दतिया में रुके, कौन जानता था उस दौर कि यह घटना और आज वैखरी में व्यक्त हो रहा यहाँ कृत्य वास्तव में पश्यन्ति वाक् का वह स्पंदन था जिसके द्वारा परा वाक् को भारत वर्ष की महान भूमि पर मूर्त रूप लेना था। श्री स्वामी जी के नाम से विख्यात उन महापुरुष का पदार्पण दतिया में उसी वय में हुआ जिसमें आचार्य शंकर ने अपना जीवन पराभट्टरिका भगवती श्री विद्या के चरणों में पुष्पांजलि स्वरूप अर्पित कर दिया था। श्री स्वामी जी के पदार्पण का यह वही दौर था जब तन्त्र को मात्र भूत-प्रेत सिद्धि व जादू-टोना माना जाता था, सिद्ध तान्त्रिक थे तो पर वे सार्वजनिक जीवन से दूरी बना कर शिवत्व प्राप्ति हेतु साधनारत रहा करते थे।
श्री परशुराम भगवान
भगवान जामदग्नेय राम भगवान श्री हरि के अवतार हैं। उन्होंने अपने कुल के प्रणेता महर्षि भृगु के आदेश पर भगवान महादेव की तपस्या की व उनसे शस्त्र विद्या का ज्ञान अर्जित किया इस अवसर पर भगवान महादेव ने उनको कई दिव्य अस्त्र व शस्त्र प्रदान किए जिसमें परशु प्रमुख था। यह परशु धारण करने से आप परशुराम कहलाए। श्रीपरशुरामकल्पसूत्र हमारे पीठ की पूजा पद्धतियों का आधार है।
भगवान परशुराम वैदिक ऋषि हैं वे ऋग्वेद के एक सूक्त के द्रष्टा हैं इसके अलावा आपश्री ने भगवान श्री दत्तात्रेय से भगवती श्री श्रीविद्या की दीक्षा प्राप्त की। भगवान दत्तात्रेय की दत्तात्रेय संहिता पर आपने परशुराम सूत्र लिखा जिसके आधार पर कालांतर में परशुराम-कल्प-सूत्र लिखा गया।
श्री महाराज जी द्वारा विधिवत की गई पीठ स्थापना से प्रसन्न हो कर भगवान परशुराम ने उनको अपने मंदिर की स्थापना करने का निर्देश दिया।
पीठ पर भगवान परशुराम का मंदिर पुस्तकालय के बगल में है। आपश्री की नित्य पूजा श्री महाराज जी की बताई विधि से होती है।
श्री हनुमान जी
श्री षडाम्नाय शिव
आम्नाय का अर्थ होता है पवित्र पंथ या पवित्र शास्त्र जो कि एक पंथ द्वारा प्रवर्तित हैं। षड् का अर्थ हुआ छह। भगवान शिव के पाँच वक्त्रों से पांच दिशाओं से पाँच आम्नाय प्रकट हुए। ये पाँच है पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर व ऊर्ध्व (ऊपर)। इनके अलावां छठा आम्नाय अनुत्तराम्नाय या अधराम्नाय है। पाँच प्रथम आम्नाय भगवान शिव के पंच कृत्य सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोधान व अनुग्रह के प्रतीक भी हैं। ये शिव कि शक्तियों चिद, आनंद, इच्छा, ज्ञान व क्रिया के भी द्योतक है। धन शमशेर जी कहते हैं कि मोक्ष तो एक आम्नाय कि साधना से ही प्राप्त हो जाता है लेकिन समस्त आम्नायों कि साधना से तो साधक साक्षात शिव हो जाता है। षडाम्नाय के बिना षटचक्र (कुण्डलिनी के छह चक्र) शुद्ध नहीं होते, ऐसे में शिवत्व प्राप्ति असंभव है। हमारे शरीर में षोडश आधार हैं। प्रत्येक आम्नाय के मूल मन्त्र के षोडश भाग हैं। मन्त्र के प्रत्येक भाग का शरीर के प्रत्येक भाग के साथ मन्त्रार्थ अभ्यास करने से मन्त्र जागृत हो जाता है। जिस आम्नाय का मन्त्र जागृत होता है उसके संबंधित चक्र में विशेष प्रकार कि झनझनाहट होती है व नाद भी सुनने में आता है। वह चक्र अपने मन्त्र के रूप में परिवर्तित हो जाता है और घर्षण से वायु निकल कर ब्रह्म-रन्ध्र में जाती है फिर वायु ब्रह्म-रन्ध्र से ब्रह्म कि ओर बढ़ जाती है इससे ब्रह्म-रन्ध्र खुल जाता है और उससे एक तन्तु प्रकट होता है। साधक का कर्तव्य है कि वह उस तन्तु को सम्हाले नहीं तो मोक्ष संभव नहीं। तन्तु सफेद भाप कि तरह होता है जो इसका साक्षात्कार कर लेता है वही तान्त्रिक होता है। इस प्रकार से षडाम्नाय महादेव के मन्त्रों से ही मोक्ष प्राप्ति संभव है। इन आम्नायों का इतना प्रभाव है कि भगवान आदि शंकर ने चार पीठ कि स्थापना चार आम्न्यों के आधार पर की। प्रत्येक आम्नाय के शिव को पीठ में स्थापित कर अनन्त श्री स्वामी जी ने पीठ को सर्वज्ञ पीठ बना दिया है।
1- तत्पुरुष महादेव-
पूर्वाम्नाय नाम से प्रसिद्ध भगवान तत्पुरुष तत्व रूप मे सृष्टि माने जाते हैं। शुद्धविद्या, बाला परमेश्वरी, द्वादशार्धाम्बा, हसन्ती श्यामालाम्बा और मातड्गीश्वरी आदि के मन्त्र इस आम्नाय से संबद्ध हैं। अन्य मत से यह आम्नाय दासवत साधना का मार्ग है।
2- अघोर महादेव-
दक्षिणाम्नाय नाम से प्रसिद्ध भगवान शिव का यह आम्नाय तत्व रूप में स्थिति है। इस आम्नाय में भगवती श्री सौभाग्यविद्याम्बा, भगवती श्री पीताम्बरा व भगवती श्री वाराही और बटुक भैरव व श्री मृत्युञ्जय के मन्त्र आते हैं। इस आम्नाय को ज्ञान का प्ररंभिक बिन्दु मानते है और साधना भक्ति योग द्वारा होती है।
3-सद्योजात महादेव-
पश्चिमाम्नाय नाम से प्रसिद्ध भगवान शिव का यह आम्नाय तत्व रूप में संहार है। इस आम्नाय कि नायिका भगवती श्री कुब्जिका हैं। इस आम्नाय में भगवती श्री कुब्जिका, लोपामुद्रा, भुवनेश्वरी, अन्नपूर्णा व श्रीकामकलाम्बा व हनुमान के मन्त्र आते हैं। ये ज्ञान की उत्तर या प्रौढ. अवस्था है इसमें कर्म योग से साधना होती है व साधक व साध्य का भेद समाप्त हो जाता है।
4-वामदेव महादेव-
उत्तराम्नाय नाम से प्रसिद्ध भगवान शिव का यह आम्नाय तत्व रूप से अनुग्रह माना जाता है। इस आम्नाय में तुरीयाम्बा, महार्धाम्बा, अश्वारूढ़ा, मिश्राम्बा और वाग्वादिनी आदि के मन्त्र आते हैं। यह ज्ञान की पूर्णता स्थिति मानी जाती है एवं साधना ज्ञान योग द्वारा होती है।
5-ईशान महादेव-
ऊर्ध्वाम्नाय नाम से प्रसिद्ध भगवान शिव का यह आम्नाय तत्व रूप में साक्षात शिव है। श्री कुलार्णव तन्त्र का श्री परा प्रासाद मन्त्र इसका प्रधान मन्त्र है इसके अलावा श्री पराम्बा और श्री पराशाम्भवी के मन्त्र भी इसी आम्नाय में हैं। यह ज्ञान कि भूमिका कि पराकाष्ठा होने से इसमें साधना शिव के साथ अभेद प्राप्त कर की जाती है।
6-नीलकण्ठ महादेव-
सामान्य रूप से अवर्णित यह आम्नाय अनन्त श्री स्वामी जी महाराज के अनुग्रह से हमें सुलभ हुआ है। इसके अंतर्गत अनुत्तराम्नाय के श्री अनुत्तराम्बा, श्री राजराजेश्वरी और श्री कालकर्षिणी आदि देवताओं के मन्त्र आते हैं।
श्री बटुक भैरव
श्री हरिद्रा गणेश
श्री पीताम्बरा पीठ दतिया की महत्वपूर्ण तिथियाँ
1-पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज का दतिया आगमन
9 जुलाई 1929
2-श्री पीताम्बरा माई के विग्रह की स्थापना
23 मई 1935
3-राष्ट्र रक्षा अनुष्ठान
19 दिसम्बर 1962
4-श्री धूमावती माई के विग्रह की स्थापना
13 जून 1978
5-पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज का महानिर्वाण
3 जून 1979
ब्रह्म यज्ञ 1974
एक सनातनी का कर्तव्य है कि वह शक्ति, शिव, विष्णु, गणेश व शिव कुल के पञ्चायतन देवता का पूजन व ब्रह्म यज्ञ, देव यज्ञ, पितृ यज्ञ, भूत यज्ञ व अतिथि यज्ञ इत्यादि पञ्च महायज्ञ नित्य करे।
इस क्रम में ब्रह्म यज्ञ वेद शास्त्र का नित्य स्वाध्याय है।
कलिकाल के प्रभावी होने के कारण यह पञ्चयातन पूजा व पञ्चमहायज्ञ शिथिल है इस कारण से आज सनातन धर्म पृथ्वी से विमुख हो रहा है, ऐसा प्रतीत होता है।
सनतान धर्म को पृथ्वी पर पुनः स्थिर करने के उद्देश्य से श्री महाराज जी ने ब्रह्म यज्ञ का आयोजन किया। यह ब्रह्म यज्ञ अपने आप में वृहदतम था इसमें वेद की किसी एक शाखा का पाठ नहीं किया गया वरन चारों वेदों की समस्त शाखाओं का षडङ्ग सहित पाठ हुआ। ऐसा विलक्षण यज्ञ इससे पूर्व सम्राट युधिष्ठिर ने किया था।
यज्ञ के अवसर पर एक वेदमूर्ति की वाणी अचानक भरभरा कर बंद हो गई तब श्री महाराज जी ने स्वयं कृष्ण यजुर्वेद का वह पाठ पूरा किया।
बाद में आपश्री ने बताया कि इस अनुष्ठान को विफल करने हेतु आसुरी शक्तियां सक्रिय थी जिनको रोकने हेतु आपने एक विशिष्ट अनुष्ठान किया था। यह यज्ञ श्री महाराज जी के सनातन धर्म के उद्धार के महान प्रयासों को दर्शाता है।